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लोकतान्त्रिक शोशेबाजी और कार्पोरेट कांग्रेस

Krishna Gupta
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अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने लोक सभा में बड़े ही गर्व से उपदेशात्मक लहजे में कहा कि, “हमें अपना लोकतंत्र मजबूत करना होगा | यहाँ तक कि सभी राजनैतिक पार्टियों मा भी लोकतंत्र होना चाहिए |” राहुल के इस बयान के कुछ ही दिनों बाद मीडिया हलकों में खबर आई कि जल्द ही वे पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष बनाने वाले हैं | सुगबुगाहट है कि यह राहुल को प्रधानमंत्री पद पर काबिज करने कि रणनीति का एक हिस्सा भर है |

यह बात पूरा देश ही नहीं, दुनिया में जो भी भारत के बारे में जानकारी रखता है, उसे ज्ञात है कि आने वाले समय में राहुल गाँधी भारत के प्रधान्मंत्री का पद संभालेगे | हो सकता है यह बात उनकी माँ सोनिया गाँधी के लिए सुकून वाली हो | हो सकता ही कि यह बात काग्रेसियों के लिए गर्व करने वाली हो | हो सकता है कि यह बात राहुल के निकटतम सहयोगियों के लिए आत्मतुष्टिदायक हो | लेकिन खुद राहुल को विचार करना चाहिए कि यह बात स्वयं उनके लिए क्या मायने रखती है ??

राहुल को सापेक्ष नजरिये से सोचना चाहिए कि वे क्या करने जा रहे है, और क्यों करने जा रहे है ? राहुल स्वयं से प्रश्न करें कि, “क्या वह प्रधानमंत्री बनने के योग्य है ?”

यह दूसरी बात है कि उनकी पूरी पार्टी उन्हें इस बड़े पद पर देखने को आतुर (पढ़े – मरी जा रही ) है | एक तरफ तो राहुल लोकसभा में दार्शनिकता झाड़ते हुए बयान देते है कि ‘राजनैतिक पार्टियों में लोकतंत्र होना चाहिए |’ और दूसरी ओर उनकी पार्टी में पूरी तरह से कार्पोरेट रवैया चल रहा है | जहाँ पर चेयरमैन का बेटा ही चेयरमैन बनेगा | क्या पूरी कांग्रेस पार्टी में ‘कार्यकारी अध्यक्ष’ पद के लिए राहुल से ज्यादा काबिल और कोई नहीं ?? क्या राहुल ने अपनी योग्यता साबित कर दी है ??

एक ऐसी पार्टी जिसके उम्मीदवार चुनाव जितने पर अपनी जीत को सोनिया व राहुल कि जीत बताते हों, और हार का दोष अपने सिर – मत्थे पर लेते हों | उस पार्टी के महासचिव (राहुल) के मुह से लोकतंत्र के समर्थन में दलीले सुनना ठीक वैसा ही था जैसे इटली का पूर्व तानाशाह अचानक अहिंसा पर प्रवचन देने लगे |

२८ जुलाई २००८ को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्ति के दौरान राहुल की माँ ने अपना कार्पोरेट कौशल दिखाया और भाड़े के टट्टू अमर सिंह के कंधे पर सवार हो कर सांसदों की खरीद फरोख्त की | विश्वास मत के लिए सांसदों को घुस देना वैसा ही है, जैसे कोई कार्पोरेट लीडर अपने फायदे के लिए किसी अधिकारी को रिश्वत देता है | यहाँ श्रीमती सोनिया गाँधी ने न तो राजनैतिक कौशल दिखाया और न ही मामले को राजनैतिक ढंग से निपटाया | यहाँ तक की उन्होंने राजनैतिक नैतिकता का भी ख्याल नहीं रखा |

जैसा की २७ अगस्त २०११ को लोकसभा में श्री शरद यादव ने नैतिकता का हवाला देते हुए कहा की, ” इस लोकसभा ने वह दिन भी देखा है जब अटल जी की सरकार मात्र एक वोट के कारण गिर गई थी | अरे यह नैतिकता का ही तकाजा है कि वह आदमी अपने लिए एक वोट का जुगाड़ नहीं कर पाया |”
शरद यादव के इस बयान को राहुल गाँधी को बार – बार पढना चाहिए | अटल विहारी चाहते तो केवल मंत्री पद का ही लालच दे कर एक वोट का जुगाड़ कर लेते | लेकिन वह वोट अनैतिक होता |

क्या इस तरह की नैतिकता कांग्रेस जन दिखा सकते है ?? क्या स्वयं राहुल में नैतिक रूप से यह कहने का साहस है कि ‘वे प्रधानमंत्री पद के लिए अभी भी योग्य नहीं है |’ प्रधानमंत्री बन जाना एक बात है, मगर उस बड़े पद का समुचित निर्वहन करना दूसरी | यह बात राहुल को अपने निकटतम मनमोहन सिंह से पूछनी चाहिए |

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